प्रस्तुति पटना द्वारा आयोजित नाट्य समारोह की यह चौथी शाम थी। स्त्री केंद्रित इस आयोजन में पिछले तीनों दिन की नाट्य प्रस्तुति एक से बढ़कर एक थी, लेकिन उनमें आए विषय मेरे आध्यात्मिक मन को जम नहीं रहा था। कड़ाके की ठंड में टिकट खरीदकर बिहार में नाटक देखने के लिए दर्शकों को कतार में पहली बार देख रहा था। बाकी दिन की अपेक्षा आज प्रेमचंद रंगशाला के सभागार में भीड़ ज्यादा थी।

नित्य दिनों की तरह मैंने अपना फोन रिकार्ड के लिए निकाला हुआ था की #Lal_Dad की प्रस्तुति से पहले पार्श्व से उद्घोषक ने आज पहली बार सूचना की – कृपया कोई भी चित्र न लें और वीडियो रिकार्डिंग न करें। आश्चर्यजनक रूप से मेरे समेत दर्शकों का अनुशासित व्यवहार देखने को मिला, जब सबने अपने फोन समेट लिए।
नाटक से पहले पूर्व रंग में परिचय देते हुए मराठी मुंबई से हिंदी पट्टी पटना में पधारी #तेजोमयी_अभिनेत्री ने सभी दर्शकों को सम्मिलित करते हुए अपनी जुबान से कुछ कश्मीरी शब्द दुहरवाए।
कुस मारित कस मारन मारि कुस्त मारन कस
यूस हरि- हरि त्रेवित गरि- गरि करे अध सुमरित मारन तस
( भावार्थ – कौन मरता है, कौन मारता है, किसने मारा तुम्हें, कैसे मरे तुम ..?
अपने अंदर के हरि यानी आत्मा को तो आपने कहा दूर हटो और दुनिया से कहा आओ – आओ मेरे पास आओ। सांसारिक चीजों की आपने चाहत रखी। दुनियावी चीजों को दोनों हाथों से समेटने की कोशिश की। आपके अंदर के अंतरात्मा को किसी ने नहीं मारा, आपने स्वयं ही उसे मारा है। )
पटना रंगमंच के दर्शकों की शानदार प्रतिक्रिया के बाद चांदनी, दिल से, पिता, यंगिस्तान, छोरी आदि फिल्मों की प्रख्यात अभिनेत्री #मीता_वशिष्ठ ने अपना अभिनय प्रारंभ किया। चार साल के शोध और दस महीने के कठिन अभिनय साधना से निर्मित सवा घंटे के इस एकल अभिनय ने आज लोगों के मन – मानस को झकझोरकर रख दिया था।
नाटक खत्म होने के बाद भी पौने घंटे तक लोग भारत एक खोज, स्वाभिमान , कहानी घर – घर की, जाबांज हिंदुस्तान के आदि विविध धारावाहिक की अदाकारा व एनएसडी स्नातक इस मंझी हुई रंगकर्मी को सुनते रहे। कोई भी कुर्सी से हिलने को तैयार नहीं थे। शिकागो में स्वामी विवेकानंद के भाषण के बाद जैसा लघु दृश्य यहां उपस्थित था। हर कोई सुश्री वशिष्ठ से बातें करना चाह रहे थे। उनके साथ अपनी सेल्फी लेने को बेताब थे।

स्वाभाविक आप सबकी उत्सुकता होगी, आखिर नाटक क्या था… जिन्होंने दर्शकों के मानस पर इस कदर अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। 1389 में इस नश्वर संसार से विदा ले चुकी 14वीं सदी की #कश्मीरी_शैव_भक्त_कवियित्री_लल्लेश्वरी ( लल्ला, अल आरिफ़ा, लल्ल-द्यद आदि अनेक उपनाम ) को आज मीता वशिष्ठ ने फिर से जिंदा कर दिया था। या यूं कहिए भक्ति ने अपनी शक्ति से वशिष्ठ को चुन लिया था।
अपनी वाणी में जीवन की नश्वरता और ईश्वर की अमरता का गायन करते हुए प्रभु भक्ति पर विशेष बल देने वाली ललद्यद अपनी वाखों यानी वाणी ( कश्मीरी काव्य शैली ) के लिए प्रसिद्ध है। अपने एक वाख में वह कहती हैं –
खा खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी,
सम खा तभी होगा समभावी
खुलेगी सांकल बंद द्वार की।
अपने वाखों के माध्यम से उन्होंने सभी भेदों से ऊपर उठकर भक्ति मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
लल्लेश्वरी के जन्म को लेकर कुछ संशय है। जयलाल कौल के अनुसार उनका जन्म 1317 से 1320 के बीच हुआ था। जन्मस्थान को लेकर भी दो मत हैं, पहला पाम्पोर और दूसरा श्रीनगर। एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे ललद्यद की शादी 12 वर्ष की छोटी उम्र में एक अधेड़ निक्क भट्ट से कर दिया गया। कश्मीरी परम्परा के अनुसार शादी के बाद उनका नाम बदलकर पद्मावती कर दिया गया। 23 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर संन्यासिनी होने का उन्होंने निर्णय लिया । गुरु सिद्धा श्री कंठ की शिष्या लल्ला ने शैव दर्शन में दीक्षित हो विरक्ति की सर्वोच्च ऊंचाइयों का स्पर्श कर भक्ति की ऐसी चरमोत्कर्ष अवस्था पा ली थी की वे निर्वस्त्र रहने लगी थीं ।

उनके हृदय से निकली वाख ने लोगों को अपनी तासीर में डुबो दिया और उनके वाख कश्मीरी जीवन और संस्कृति की पहचान बन गयी। कश्मीरी भाषा का स्तंभ मानी जाने वाली संत कवि ’लल्लेश्वरी’ सात सदी बाद भी आज कश्मीरीयों की स्मृति और वाणी में जीवित है। उसे जीवंत बनाए रखना आज का राष्ट्रधर्म भी है और युगधर्म भी।
